संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘आर्थिक व सामाजिक कल्याण विभाग’ द्वारा जून 2019 में जारी की गई ‘वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉस्पेक्ट्स’, 2019 की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2050 तक विश्व की जनसंख्या मौजूदा जनसंख्या से 26 % तक बढ़कर 9.7 बिलियन हो जाएगी । संयुक्त राष्ट्र संघ की यह रिपोर्ट यह भी बताती है की भारत उन देशों की सूची में शामिल है जहाँ 2019 से 2050 के मध्य जनसँख्या में सर्वाधिक वृद्धि होगी । ऐसा अनुमान है कि भारत की जनसँख्या में वर्ष 2019 से 2050 के मध्य 27.3 करोड की वृद्धि होगी । ‘संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष’ (UNFPA) की रिपोर्ट के आंकलन के अनुसार भारत की जनसँख्या 2010-19 के मध्य 1.2 % की दर से बढ़ी । जनसंख्या की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़े देश ,जो हमारा पड़ोसी राष्ट्र भी है ,चीन में जनसंख्या वृद्धि की यह दर वर्ष 2010-19 के मध्य 0.5 % की रही है ।
भारतीय जनगणना के आंकड़ों पर यदि गौर करें, तो वर्ष 2011 में की गई व्यापक जनगणना के अनुसार भारत की कुल आबादी 121 करोड़ के करीब दर्ज की गई । यदि ‘दशकीय विकास दर’ (Decadal Growth Rate) की बात करें तो यह लगभग 17.7 % के करीब रही । आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान है कि यदि हमारी जनसंख्या इसी गति से बढ़ती रही तो वर्ष 2030 के पहले ही हम पड़ोसी देश चीन को जनसंख्या के मामले में पीछे छोड़ देंगे ।
बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था में ‘जनसांख्यिकी’ (Demography) का विशेष महत्व माना गया है । किन्तु यह भी सत्य है कि अपने ‘मानव संसाधन’ (Human Resource) को पूर्ण रूप से उपयोग में लाने के लिए किसी भी राष्ट्र को उसपर विभिन्न प्रकार के संसाधनों का ‘व्यय’ भी करना पड़ता है । यह ‘व्यय’ प्राकृतिक संपदाओ की पर्याप्त उपलब्धता व उसकी उचित उपयोगिता के रूप में, अच्छी शिक्षा, रोजगार के पर्याप्त साधन, उत्तम स्वास्थ्य सुविधाओं इत्यादि के रूप में, कोई भी राष्ट्र अपने मानव संसाधन पर करता है । किंतु बढ़ती हुई यह जनसंख्या न सिर्फ सरकारों की चुनौतियों को कई गुना तक बढ़ा रही है, अपितु इसका सीधा प्रभाव प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के रूप में भी देखने को मिलता है ।
यदि आंकड़ों पर गौर करें तो स्थिति वास्तव में चिंताजनक प्रतीत होती है । ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (WHO) और ‘यूनिसेफ’(UNICEF) की एक साझा रिपोर्ट के अनुसार विश्व के हर तीन में से एक व्यक्ति को पीने योग्य शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं होता । यदि भारत की बात करें तो वर्ष 2016 की ‘वाटरऐड रिपोर्ट’ यह बताती है कि भारत में लगभग 76 मिलियन लोगों को पीने योग्य शुद्ध जल नहीं प्राप्त हो पाता । ‘एशियाई विकास बैंक’ का यह अनुमान है कि वर्ष 2030 तक भारत में 50 % तक पीने योग्य पानी की कमी हो जाएगी । वर्ष 2019 में भारत ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ की 117 देशों की सूची में 102वें स्थान पर रहा ।
30.3 के स्कोर के साथ भारत ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ में गंभीर स्थिति वाले देशों की सूची में शामिल हुआ है । ‘नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट’ की रिपोर्ट कहती है कि भारत में वयस्क कन्याओं का एक बहुत बड़ा वर्ग शिक्षा से वंचित है । भारत में उच्च शिक्षा के छेत्र में छात्र-शिक्षक अनुपात 24:1 का है ,जो कि ब्राजील व चीन जैसे देशों से कम है । यदि स्वास्थ्य संबंधी व्यवस्थाओं के संदर्भ में बात करें तो वर्तमान कोविड-19 महामारी ने सिर्फ भारत की अपितु वैश्विक स्वास्थ्य संरचना के खोखले पन को उजागर किया है । गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की मृत्य हो या कोटा के एक अस्पताल में कई नवजात शिशुओं की मृत्य की घटना हो, स्वास्थ्य व्यवस्था गंभीर प्रश्नों के घेरे में है ।
ऐसे ही तमाम अनुसंधान समय समय पर इस कटु सत्य की ओर इशारा करते रहे हैं कि भले ही आज हम युवाओं की आबादी के मामले में विश्व के देशों से आगे हों, किन्तु इस ‘युवाशक्ति’ को ‘राष्ट्रशक्ति’ के रूप में विकसित करने के लिए जितने पर्याप्त संसाधन हमें चाहिए, उनका भारी अभाव है । और इसका प्रमुख कारण है जनसँख्या विस्फोट।
(मसूरी की मॉल रोड जो अक्सर भीड़ से खचा खच भरी रहती है. फोटो: ट्रिप एडवाइजर )
हालाँकि भारत ने ‘जनसँख्या स्थिरता’ के क्षेत्र में बहुत से प्रयास भी किए हैं । भारत, विश्व का वह पहला राष्ट्र है जिसने ‘परिवार नियोजन’ की आवश्यकता को समझते हुए वर्ष 1952 में ही ‘राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम’ की शुरुवात की । यही नहीं वर्ष 1966 में भारत सरकार ने स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत ,परिवार नियोजन को लेकर एक विशेष विभाग का निर्माण किया । वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार में ‘नई जनसंख्या नीति’ के माध्यम से परिवार नियोजन की महत्ता को रेखांकित किया गया । हालाँकि इसमें सहभाग लेने को पूर्ण रूप से व्यक्ति की ‘स्वेक्षा’ का विषय माना गया । समय समय पर सरकारें इस ओर प्रयास करती आई हैं ।
इन प्रयासों का परिणाम है कि जनसंख्या स्थिरता के संदर्भ में महत्वपूर्ण सूचकांक के रूप में देखे जाने वाले ,महिलाओं में ‘कुल प्रजनन दर’ (Total Fertility Rate) में कमी आयी है । ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ (चार) (NFHS 4) की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय महिलाओं में ‘कुल प्रजनन दर’ ‘2.2 बच्चे प्रति महिला’ ,दर्ज की गई है । NFHS ‘3’ की रिपोर्ट के अनुसार यह दर 2.7 दर्ज की गई थी ,जो मौजूद दर से 0.5 ज्यादा थी । यह एक सकारात्मक संकेत है ।
भारत इस संदर्भ में ‘आदर्श दर’ जिसे ‘फर्टिलिटी रिप्लेसमेंट रेट’ (Fertility Replacement Rate) कहा जाता है, जो कि 2.1 है ,के बहुत करीब है । केरल (1.7), तमिलनाडु (1.6), कर्नाटका (1.7), महाराष्ट्र (1.7), आंध्र प्रदेश (1.6) , तेलंगाना (1.7), पश्चिम बंगाल (1.6), जम्मू और कश्मीर (1.6) जैसे राज्यों में तो यह दर ‘फर्टिलिटी रिप्लेसमेंट रेट’ से भी कम हो गयी है । हालांकि इस संदर्भ में उत्तर भारत के राज्य जैसे उत्तर प्रदेश (3.0), बिहार (3.2), मध्य प्रदेश (2.7) ,राजस्थान (2.6) जैसे राज्यों को और प्रयास करने की आवश्यकता है ।
भारत में इस जनसँख्या विस्फोट का एक कारण विवाह, तलाक व गोद लेने संबंधी कानूनों में समानता का अभाव भी है । भारत में ‘समान नागरिक संहिता’ (UNIFORM CIVIL CODE) के विषय को सदैव राजनीति के साधन के रूप में ही देखा गया है । संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता के महत्व को समझते हुए इसे ‘राज्य के नीति निर्देशक तत्वों’ की सूची में शामिल किया था और आने वाली पीढ़ियों से यह अपेक्षा की थी कि वह इस संदर्भ में हर संभव प्रयास करेंगे ,किंतु जनकल्याण से जुड़ा यह महत्वपूर्ण विषय वर्षों से राजनीतिक दलों के आपसी संघर्ष के मध्य फँस कर रह गया है ।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही , स्वतंत्रता दिवस के अपने संबोधन में लाल किले की प्राचीर से, जनसंख्या नियंत्रण के महत्व को रेखांकित किया । उन्होंने इसके लिए ‘जन सहभागिता’ का आह्वान भी किया । प्रधानमंत्री ने जनसंख्या नियंत्रण में सहभागिता को ‘राष्ट्रभक्ति’ का एक साधन बताया ।
बढ़ती हुई ये जनसँख्या अधिक से अधिक संसाधनों के दोहन को प्रेरित करती है, हमें भविष्य में इस्तेमाल हेतु भी अपने संसाधनों का संचय करना होगा ,अतः यदि हम भारत को दुनिया का नेतृत्व करने वाला भारत बनाने का सपना देखते हैं तो हमें जनसंख्या स्थिरता के मानकों को शीघ्र अति शीघ्र प्राप्त करने की ओर कदम बढ़ाने होंगे ।
हमें इस बात का भी विशेष ध्यान रखना होगा कि हमारे यह प्रयास ‘जनभागीदारी’ पर आधारित हों न कि जोर जबरदस्ती के साधनों पर । हमें ज्ञात है कि वर्ष 1975 के करीब ,विशेषकर इमरजेंसी के दौर में , ‘परिवार नियोजन’ को जोर जबरदस्ती से क्रियान्वित करने के प्रयास हुए , जिसका लोगों के मनोविज्ञान पर दुष्प्रभाव साफ देखने को मिला । अतः हमें ‘जनसँख्या स्थिरता’ के लक्ष्य प्राप्ति के प्रयासों को जनांदोलन की शक्ल देने होगी । जागरूकता अभियानों ,महिलाओं की शिक्षा पर अधिक व्यय ,आदि अनेकों प्रयास हमारी सरकारों ने किये भी हैं और इन्हें आगे भी और अधिक व्यापक रूप में जारी रखना होगा ।
लेखक राजनीति विज्ञान (मास्टर्स) – ईस्वर सरन डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के छात्र हैं |