कचरा आज हमारे सामने एक विकराल समस्या बनकर खड़ा है। यह एक राष्ट्रिय चुनौती बन गई है और उत्तराखंड राज्य भी इस समस्या से अछूता नहीं है। खास बात यह है कि पिछले कुछ वर्षों में कचरे की मात्रा में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है और समय के साथ इसमें और बढ़ोत्तरी होने की संभावना है। कहना न होगा कि धरती पर बढ़ते कचरे के साथ ही असाध्य बीमारियों और इनसे पीड़ित होने वाले लोगों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है। कचरा कई तरह की पर्यावरणीय और सामाजिक समस्यों का कारण भी बन रहा है और वैश्विक व राष्ट्रीय स्तर पर इसके दुष्परिणाम के आंकड़े भयावह संकेत दे रहे हैं।
उत्तराखंड की बात करें तो एक करोड़ से ज्यादा आबादी वाले राज्य मे प्रतिवर्ष एक सौ करोड़ किलो से ज्यादा कचरा पैदा होता है। इसमें यहां आने वाले पर्यटकों और तीर्थयात्रियों द्वारा फैलाया जा रहा कचरा शामिल नहीं है। तीर्थयात्री और पर्यटक राज्य में कितनी बड़ी संख्या में कचरा फैलाते हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2019 में हरिद्वार में 15 दिन के कांवड़ मेले में आये 4 करोड़ श्रद्धालुओं ने लगभग 1 करोड़ 60 लाख किलो कचरा फैला दिया था। उस वर्ष चारधाम यात्रा सीजन में यात्रा मार्ग पर फैली गंदगी भी समाचारों में सुर्खियां बनी। कोविड काल की बात न करें तो राज्य के अन्य पर्यटक स्थलों पर भी वर्षभर पर्यटकों की आवाजाही रहती है। ऑल वेदर रोड और कर्णप्रयाग तक रेल लाइन बन जाने के बाद राज्य में तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों की संख्या और बढे़गी। जाहिर है, इससे कचरे की मात्रा में भी बढ़ोत्तरी होगी।
कचरे के मामले में राज्य के बड़े शहरों देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार, काशीपुर आदि की स्थिति चिंताजनक है। इन शहरों की जनसंख्या में पिछले एक दशक के दौरान 30 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। देहरादून की जनसंख्या में तो पिछले 20 वर्षों के दौरान दोगुना से भी ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई। लेकिन, जनसंख्या बढ़ोत्तरी की इस रफ्तार के बावजूद इन शहरों में कचरा निस्तारण की उचित व्यवस्था नहीं हो पाई है। आने वाला दौर तीव्र विकास का दौर है, विकास के साथ प्रति व्यक्ति आमदनी में वृद्धि का सीधा संबंध है और आमदनी बढ़ने के साथ ही कचरे में वृद्धि होना आम बात है। यानी कि आने वाला समय कचरा उत्पादन की दृष्टि से और अधिक खतरनाक साबित होने वाला है।
कचरे के मामले में सबसे निराशाजनक बात यह है कि कचरा उत्पादन के लिए जिम्मेदार आम नागरिक कचरे से दूर भाग रहे हैं। नॉट इन माई बैक यार्ड, जिसे निम्बी सिंड्रोम कहा जाता है, तेजी से फैल रहा है। लोग कचरा तो पैदा करते हैं लेकिन चाहते हैं कि उनके आसपास कूड़े का निस्तारण न किया जाए। देहरादून का ही उदाहरण लें तो कोविड से पहले शहर और आसपास के क्षेत्रों में कचरे को लेकर 4 से 5 जगहों पर आंदोलन चल रहे थे । सबसे बड़ा आंदोलन शहर से लगते शीशमबाड़ा मे चला । यहां करोड़ों रुपये की लागत से सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट लगाया, लेकिन कई कारणों से इस प्लॉट में कूड़े का सही तरीके से निस्तारण नहीं हो पा रहा है। प्लांट के आसपास रहने वाले लोग इस प्लांट के शुरू होने से पहले से ही लगातार आंदोलन कर रहे हैं और इस आंदोलन की तीव्रता लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा कारगी के पास बनाये गये कूड़ा ट्रांसफर सेंटर को लेकर भी निरंतर विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं। शहर के लगते कैंट बोर्ड क्षेत्रों, प्रेमनगर और गढ़ी कैंट में भी डंपिंग यार्ड के खिलाफ लोग आंदोलन कर रहे थे । राज्य के कई दूसरे शहरों, हरिद्वार, ऋषिकेश और उत्तरकाशी में भी कचरे के खिलाफ छिटपुट रूप से विरोध की आवाजें उठ रही हैं।
हम अब तक सामान्य कचरे के प्रबंधन की ही ठीक से व्यवस्था नहीं कर पाये हैं, जबकि प्लास्टिक कचरा, ई-कचरा, बायो मेडिकल कचरा और कंस्ट्रक्शन कचरा भी लगातार भयावह स्थिति पैदा करने की स्थिति तक पहुंच रहा है। आने वाले दिनों में सामान्य कचरे के साथ इस तरह का कचरा भी हमारे लिए बड़ी समस्या बनने जा रहा है।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि इस समस्या का समाधान क्या है? आमतौर पर हम कचरा निस्तारण के लिए कुछ दिन अथवा कुछ सप्ताह का अभियान चलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, लेकिन वास्तव में यह अभियान कुछ घंटे, कुछ दिन अथवा कुछ सप्ताह का अभियान नहीं है। यह एक निरंतरता का अभियान है। एक ऐसा अभियान, जो कभी खत्म न हो। दूसरी बात यह कि सिर्फ सरकार के भरोसे रहकर कचरे की समस्या का समाधान संभव नहीं है। सरकार, समाज और बाजार के त्रिकोण को मिलकर इस समस्या से निपटने की जरूरत है। कचरे के निस्तारण के लिए हमारे देश में सशक्त कानून हैं, लेकिन बिना जन भागीदारी के इन कानूनों का कोई महत्व नहीं रह जाता।
सरकार, समाज और बाजार का त्रिकोण मिलकर यदि प्रयास करे तो कचरे की समस्या से छुटकारा पाना असंभव नहीं है। मध्य प्रदेश के इंदौर शहर का उदाहरण हमारे सामने है। इस शहर में आम नागरिकों, जन प्रतिनिधियों, व्यावसायियों और सरकार ने मिलकर कचरा निस्तारण के क्षेत्र में जो क्रांतिकारी प्रयास किये, उनसे सभी को प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। मध्य प्रदेश के एक और शहर अम्बिकापुर से भी कचरा निस्तारण के मामले में बहुत कुछ सीखा जा सकता है। यदि हम पर्वतीय राज्यों की बात करें तो सिक्किम और हिमाचल प्रदेश में भी ऐसे मॉडल हैं, जिनसे प्रेरणा लेकर हम उत्तराखंड राज्य को कचरे की समस्या से मुक्त करने की दिशा में सकारात्मक कदम उठा सकते हैं।
( लेखक देहरादून स्थित एसडीसी फाउंडेशन के संस्थापक हैं )
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